धर्म चक्र

काजी की बेटी ने श्रीकृष्ण का अमर संदेश पढ़कर लिखी कामयाबी की इबारत, अब्बा जान बुर्के को भी कहते थे कैद

फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश). कौन हिंदू-कौन मुसलमान। साहित्य कभी कौमी फर्क नहीं देखता। यह तो जीवनसंदेश है। जिसने इसे समझा, वही धर्म की दहलीज को लांघकर बड़े मुकाम तक पहुंच गया है। कामयाबी की कहानी नामक अपनी खास सीरिज और विश्व फोटोग्राफी दिवस (World Photography Day) के तहत शब्द चक्र न्यूज आज देश की पहली सोलो महिला ट्रैवलर डॉ. कायनात काज़ी (Dr. Kaynat Kazi) की जिंदगी से रू-ब-रू करा रहा है। बड़े गर्व की बात है कि एक ओर हम योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मना रहे हैं, वहीं डॉ. कायनात काज़ी की जिंदगी में भी इस दिव्य शक्ति की बहुत बड़ी अहमियत है। श्रीकृष्ण का अमर संदेश यानि श्रीमदभागवत गीता पढ़कर ही डॉ. कायनात काज़ी इस मुकाम तक पहुंची हैं। इनके अब्बा एक शाही ईमाम होने के बावजूद इन्हें गीता का ज्ञान पढ़ाते थे।

उत्तराखंड में कॉलेज में आर्ट्स एंड कल्चर पढ़ा रही डॉ. कायनात काज़ी (Dr. Kaynat Kazi) जर्नैलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन और आर्किटेक्चर में डिग्री किए हुए हैं। डॉ. कायनात बताती हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इस्लामिक स्टडी में ग्रैजुएट पिता शाही ईमाम थे। घर में दो बेटियों के बाद एक बेटे की चाहत थी, लेकिन कुदरती संयोग था कि बेटे की आस में 9 साल के लंबे इंतजार के बाद मैं यानि तीसरी भी बेटी ही हुई। बाकी परिवार मायूस था, लेकिन अब्बा जान बहुत खुश थे। एक कहावत है कि काजियों के घर में गुलाम भी पढ़े-लिखे होते हैं, दसलिए मेरी पढ़ाई भी अच्छी रही। अब्बा जान को फोटोग्राफी का बहुत शौक था। उन्हीं को देखकर मुझे भी कैमरे से लगाव हो गया। अब्बा कैमरे, एंगल और दूसरी बारीकियों के बारे में हमें भी बताते थे।

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एक खास बात और कि लोगों के घरों की तरह हम तीनों बहनों में खिलौनों के लिए नहीं, बल्कि अखबार के लिए लड़ाई होती थी। दोपहर में अब्बा हुजूर अखबार का एडिटोरियल कॉलम पढ़कर सुनाते। जैसे-तैसे बचपन बीता तो अपने फैसले खुद ले पाने के लिए शैक्षणिक और आर्थिक रूप से मेरा मजबूत होना जरूरी था। सीखने की ललक के चलते मैंने गहनों की जगह कैमरे के लैंस खरीदे। शुरुआती कमाई से मैं 5 साल घूमी। मैं बचपन से ही कहानियां लिखती थी। बड़ी बहन के जरिये मेरी कहानियां आकाशवाणी आगरा में पहुंची तो बेहद पसंद की गई। करीब 13 साल की उम्र में जब मैं 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी तो पहली बार घर से आगरा आकाशवाणी के लिए निकली। अब्बा जान ने मुझे रोडमैप बनाकर दिया। ग्रैजुएशन में मैंने हिंदी लिटरेचर और सोशल साइंस लिया।

कायनात ने बताया कि जब वह 22 साल की थी तो अब्बा जान को चौथी स्टेज का कैंसर था। इस दौरान उन्होंने जिंदगी को भरपूर जिया। म्यूजिक और सिनेमा के अलावा अच्छा खाना उनकी जान थे। अपने मन का खाना खाया और सुरैया, नूरजहां, शमशाद बेगम के गाने चुन-चुनकर सुने। उनके पास फिल्मों की सारी डिटेल्स होती। कहते थे कि ऊपर जाकर बस इस बात का मलाल रहेगा कि मेरा संगीत मेरे पास नहीं रहेगा।

बकौल कायनात, जिस जमाने में पेपर में पास होने के लिए लड़कियां दरगाह पर मन्नत के धागे बांधती थी, पैन फुंकवाती थी, ताबीज बनवाती थी, उस जमाने में मेरे अब्बा जान ने श्रीमदभागवत गीता के जरिये मुझे कर्म की शिक्षा दी। उन्होंने मेरे कमरे की दीवार पर गीता के उपदेश का बड़ा सा पोस्टर लगाया था। मेरे राइटिंग पैड पर भी उन्होंने गीता का सार चिपकाया था, ताकि मैं जीवन में हमेशा गीता की शिक्षा को न भूलूं। इसके अलावा वह बड़ी बहन के लिए कॉस्मोपोलिटन और फैमिना जैसी मैगजीन मंगाते थे। यहां तक कि वह बुर्के को एक चलती-फिरती कैद कहते थे और उन्होंने हमें कभी बुर्का नहीं ओढ़ने दिया। उन्हीं के खुले विचारों और सहारे का असर है कि कभी मैंने भी समाज की परवाह नहीं की। कपड़े, कैरियर और जीवनसाथी हर फैसला मेरा खुद का है।

काजी की बेटी ने श्रीकृष्ण का अमर संदेश पढ़कर लिखी कामयाबी की इबारत, अब्बा जान बुर्के को भी कहते थे कैद
बेटे को दुलारती डॉ. कासनात काज़ी। -शब्द चक्र न्यूज

डॉ. कायनात ने यह भी बताया कि दिल्ली-एनसीआर में जब वह जॉब के साथ-साथ पढ़ाई कर रही थी तो यहीं से फोटोग्राफी का शौक जुनून बना। कॉर्पोरेट में काम करके समझ आया कि यह काम उनके लिए नहीं बना है और नौकरी छोड़ दी। इसके बाद ओपी शर्मा से फोटोग्राफी की छोटी-छोटी डिटेल्स सीखी। कॉलम लिखकर और फोटो के जरिये अपने अहसास व्यक्त करने लगी। मैं हमेशा सोचती थी कि जितने भी यात्री हुए हैं, सारे पुरुष क्यों हैं? तभी ट्रैवलिंग ने दिल में जगह बनाई और घूमना शुरू कर दिया। पिछले कुछ बरसों में भारत दर्शन की यात्रा के दो लाख किलोमीटर से भी ज्यादा लंबा सफर अकेले तय किया है। हालांकि यह ऐसे ही नहीं हो गया, पति ने काफी सपोर्ट किया है।

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