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Birthday Special: ये कलाकार लेकर आया था Double Meaning फिल्मों का ट्रैंड, गंदे से गंदा टाइटल करा लेते थे सैंसर; जिंदगी में था इतना दर्द फिर भी सबको हंसाया

मुंबई. Dada Kondke Birthday Special: एक बहुत पुरानी कहावत है-डॉक्टर की फैमिली बहुत बीमार रहती है। इसका मतलब हर कोई जानता है Reel और Real Life में बहुत अंतर होना होता है। आज शब्द चक्र न्यूज फिल्म जगत के उस शख्स की निजी जिंदगी के दर्द से आपको रू-ब-रू करा रहा है, जो कभी लोगों को खूब हंसाता था। इस शख्स का नाम है दादा कोंडके और आज 8 अगस्त को उनका 90वां जन्मदिवस है। दादा कोंडके वह कलाकार थे, जिनकी फिल्मों के टाइटल देखकर सैंसर बोर्ड के अफसरों को पसीना आ जाता था, लेकिन गजब की बात थी कि सैंसर करने पड़ते थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का मजाक उड़ाने को लेकर उनके ड्रामा पर कांग्रेस विरोधी होने का टैग लग गया था, वहीं और भी कई दिलचस्प बातें इस शख्स से जुड़ी हैं। आइए जरा तफसील से जानते हैं…

दादा कोंडके का जन्म 8 अगस्त 1932 को महाराष्ट्र में पुणे के पास बसे छोटे से गांव इंगावली के परिवार में हुआ था। इनका परिवार काम की तलाश में मुंबई में आया और लालबाग की चॉल में आकर बस गया। घर ज्यादातर सदस्य बॉम्बे डाइंग की कॉटन मिल में काम करते थे। जन्म वाले दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी होने के कारण इनका नाम भी कृष्णा रखा गया था। कुंडली देखकर ज्योतिषी ने ताउम्र विफलता ही मिलने की बात कही थी, लेकिन दादा ने अपने टैलेंट से हर मोड़ पर कामयाबी को इंज्वाय किया। बचपन से ही वह बहुत बदमाश किस्म के रहे हैं। एक इंटरव्यू में खुद ही कहा था, लालबाग इलाके में मेरा आतंक था। कोई हमारे मोहल्ले की लड़कियों को छेड़ नहीं सकता था। बदमाशों पर मेरा गुस्सा बरसता था। मैं मैंने ईंट-पत्थर, सोडा बोतलों से खूब लड़ाइयां की हैं’। जवानी के वक्त एक हादसे में बड़े भाई और इनको छोड़कर परिवार के लगभग सारे सदस्य मारे गए। इसके बाद एक साल तक उन्होंने किसी से बात नहीं की, खाना-पीना भी लगभग बंद ही था। उधर, दादा कोंडके ने नलिनी नाम की महिला से शादी की थी। कुछ साल में तलाक की नौबत आ गई। नलिनी ने दोनों के बीच कभी शारीरिक संबंध नहीं बनने का दावा किया था। यही वजह रही कि 1969 में नलिनी की कोख से जन्मी बेटी तेजस्विनी को दादा कोंडके ने अपनाने से इनकार कर दिया।

इस कलाकार की देन हैं दोहरे मतलब वाली फिल्में, गंदे से गंदा टाइटल करा लेते थे सैंसर; सबको हंसाने वाले की निजी जिंदगी में था झेला दर्द

कृष्णा उर्फ दादा कोंडके ने जवानी में परिवार को खोने के गम से उबरने के बाद अपना बाजार नाम की एक किराना दुकान में 60 रुपए महीने की नौकरी की, वहीं मनोरंजन के लिए एक लोकल बैंड का हिस्सा बन गए। यहीं उन्हें स्टेज शो से जुड़ने का मौका मिला। प्ले करते हुए महाराष्ट्र के कई इलाकों में जाने का मौका मिला, जहां उन्होंने दर्शकों की मनोरंजन से जुड़ी डिमांड को बखूबी समझा। वह सेवा दल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का हिस्सा थे, जहां उन्होंने ड्रामा में काम किया। यहां उनकी मराठी स्टेज पर्सनैलिटी से जान-पहचान बढ़ी और मदद से अपनी थियेटर कंपनी शुरू कर दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का मजाक बनाने के चलते इस ड्रामा को कांग्रेस विरोधी बताया गया। 1975 में हैदराबाद में इसका आखिरी प्ले हुआ। हालांकि इससे पहले ही ‘विच्छा माझी पूरी करा’ देखकर फैन हो चुकी उस जमाने की पॉपुलर सिंगर आशा भोसले ने कृष्णा की मुलाकात मराठी फिल्ममेकर भालजी पेढ़ाकर से करवाई तो 1969 में फिल्म ‘तंब्डी माती’में मौका मिल चुका था। पहली ही फिल्म को बैस्ट मराठी फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड मिला। 1971 में दादा ने ‘सोंगड्या’फिल्म बनाई तो खुद लीड रोल निभाया।

इस कलाकार की देन हैं दोहरे मतलब वाली फिल्में, गंदे से गंदा टाइटल करा लेते थे सैंसर; सबको हंसाने वाले की निजी जिंदगी में था झेला दर्द

बड़ी गजब की बात है कि दादा कोंडके की फिल्मों के टाइटल और डायलॉग डबल मीनिंग हुआ करते थे। उनके पास अपनी हर फिल्म के टाइटल और डायलॉग को लेकर बड़ा गजब का जवाब होता था, जिसे सैंसर बोर्ड को मानना पड़ता था। मराठी सिनेमा में पॉपुलर होने के बाद दादा कोंडके ‘तेरे मेरे बीच में’, ‘अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में’, ‘आगे की सोच’और ‘ले चल अपने साथ’जैसी हिंदी फिल्मों में भी नजर आए। इनमें से अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में फिल्म काफी चर्चा में रही। वजह थी फिल्म का डबल मीनिंग टाइटल और सैक्स कॉमेडी वाले डायलॉग्स। हालांकि इन फिल्मों को B या C ग्रेड दिया जाता था तो इस बात से नाराज होकर कोंडके ने मराठी फिल्मों को हिंदी में बनाने का ट्रेंड शुरू किया। धर्मेंद्र, जितेंद्र, अमिताभ बच्चन जैसे बड़े कलाकार भी दादा कोंडके के काम की सराहना कर चुके हैं। रेखा इनकी फिल्म ‘भिंगरी’के गाने ‘कुठे जायचे हनीमून’में लावणी करती दिख चुकी हैं। इनकी कई फिल्मों में आशा भोसले ने आवाज दी है।

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यहां पड़ा बड़ा पंगा तो काम आए बाल ठाकरे

1971 में दादर के कोहिनूर थियेटर के मालिक ने देव आनंद की फिल्म ‘तीन देवियां’लगाने का फैसला किया, लेकिन दादा 4 हफ्ते पहले ही ‘सोंगड्या’के लिए थियेटर बुक कर चुके थे। थियेटर मालिक के अड़ियल मिजाज से परेशान होकर दादा कोंडके ने शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे से मदद मांगी। ठाकरे ने खुद थियेटर के बाहर छोटा सा मंच बनवाया और भाषण में थियेटर मालिकों से कहा, क्या फिल्में हिंदी में ही होती हैं। महाराष्ट्र में मराठी फिल्म ना दिखाकर आप यहां के लोगों से अन्याय कर रहे हैं। आपने फिल्म को जगह नहीं दी, अब हम इस फिल्म को इसी थियेटर में लगाएंगे। फिल्म लगाने का अधिकार हम आपसे छीनते हैं। अगर फिल्म नहीं लगी तो ये टॉकीज, टॉकीज नहीं रहेगी और आपको इसका हर्जाना भुगतना पड़ेगा। इसके बाद दादा कोंडके शिवसेना की रैलियों में भीड़ बढ़ाने का काम करने लगे। बाल ठाकरे से गहरी दोस्ती थी। जब 80 के दशक में शिवसेना दोबारा सरकार बनाने वाली थी तो दादा को उम्मीद थी कि ठाकरे उन्हें विधायक की टिकट देंगे, लेकिन उनके हाथ निराशा लगी। एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद महाराष्ट्र के CM बनने की इच्छा जाहिर की थी।

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